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वो किसान है| प्रेरक लेख

ख्वाइशों के पँख-बसन्त नायक, आईआईटी दिल्ली
ख्वाइशों के पँख-बसन्त नायक, आईआईटी दिल्ली
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किसान के पास खेत है, मगर यह कब्र के बराबर जमीन से भी कम है अर्थात नगण्य। किसान के पास खेत है, मगर बीज, उर्वरक और कृषि औज़ार के लिए पर्याप्त धन नही होता। घरेलू खाद भी इस्तेमाल कर सकते है, मगर गोबर करने वाला भी कोई पशु होना चाहिए। बड़े प्रयत्न के बाद, अगर कोई पशु ले भी आता है तो वो कुछ दिन के बाद हड्डियों का खाँचा बनकर रह जाता है। इनकी पूरी छःमाही तो आसमान को देखते- देखते निकल जाती है। पूरा फसल-उत्पादन तो मानसूनी वर्षा पर निर्भर रहता है। माना जैसे-तैसे छः महीने के बाद कुछ उत्पादन हो गया, लेकिन महँगाई और फसलों के दाम किसान की कमर तोड़ देती है, अंततः किसान के हौसलें परस्त हो जाते है, बचता है सिर्फ कर्ज़ जिसे ताउम्र पूरा करने गुजर जाती है। किसान तो गालियों को भी प्रसाद समझकर खा लेता है,क्योंकि उनके मन पर सहसा ही अभिमान का जंग नहीं लगता है।

वाह रे किसान!! तेरी व्यथा,
चूषक सारे तुझसे लिपटे,
तरह-तरह के वेशों में।
आज भी तूँ भूखा सोता है,
इस पैसो वाले देशों में।।

वाह रे किसान!! तेरो व्यथा,
जब तूँ देता है,
वह लेता है रोटी के भाव।
जब तूँ माँगे है,
वही देता है उसे कोटि के भाव।।

देखा जाये तो किसान की हालात उस पक्षी की भाँति होती है, जिसके पंख काटकर पिंजरे से मुक्त कर दिया जाता है। उड़ने की लालसा में टूटे पंख फड़फड़ाते है, मगर सफलता नगण्य होती है। बेचारा हारकर उन्मुक्त आकाश-मण्डल को निहारकर वापस उसी पिंजरे में जाकर बैठ जाता है। अनगिनित दर्द में चंद ख्वाइशें पालता है, और बार-बार उन्ही के लिए जीवन यापन करता है। इस पुरे खेल में कुछ ख्वाइशें पूरी हो जाती है, कुछ गरीबी के बोझ तले दब जाती है। लेकिन किसान हिम्मतों की पोटली इकठ्ठी करके, उन्हें फिर से पूरा करने की कोशिश करता है।

यही दृश्य देख कुछ पंक्तियाँ याद आ जाती है-

मन्दिर के अंदर, भगवान काफी थे ,
चौखट के बाहर, इंसान पापी थे ,
पंख काट कर, पिंजरा खोला ,
तुझे आज़ाद किया, वो दानव बोला ,
उन्मुक्त आकाश-मंडल देख, पंख फड़फड़ाये ,
ये देख के नज़ारा, मन भर सा जाए ,
वो लड़कर खुद से, पिंजरे में आया ,
ये दानव लोभी, इसे दिखती माया ,
इस नज़ारे में किसान पक्षी है ,
उनका खून चूसने वाले भक्षी है ,
पिंजरा कर्ज़ की दीवारें है ,
जो ना समझे, वो मानुष आवारे है।।

वक़्त बदल रहा है, महल की बाहरी आभा अपनी पराकाष्ठा पर है। भिन्न- भिन्न योजना हेतू हज़ारों करोड़ खर्च होंगे, लेकिन किसान जो इस महल की नींव की ईंट है, अभी भी अनदेखी का शिकार है। समय के साथ-साथ नींव की ईंट का विध्वंस शुरू होने लगा है, और जब ये अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचकर विलुप्त होने लगेगा, इस दिन यह खोखला महल ढह जायेगा।
जब सुधार किसानवाले तबके से शुरू होगा, तब यही तबका सुधरकर और शिक्षित बनकर जनभागीदारी से विकास करेगा और उस समय सही मायने में उज्ज्वल और सच्चे भारत का निर्माण होगा।

Copyright: unmuktudaan.com/2016/12/vo-kisan-hai/

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